लेखक :- कजोड़ मल मीना, एडवोकेट, राजस्थान उच्च न्यायालय जयपुर
भारतीय लोकतंत्र का सबसे सशक्त या मजबूत आधार स्थानीय प्रशासन के निर्वाचित जनप्रतिनिधि होते हैं। परंतु बड़े खेद के साथ यह बताना पड़ रहा है कि स्थानीय प्रशासन के जनप्रतिनिधियों को संवैधानिक आधार आजादी की 50 साल बाद मिले, जो अपने आप में एक गंभीर बात है। हालांकि संविधान निर्माताओं ने संविधान के अनुच्छेद 40 में ग्राम पंचायतों के संगठन का हवाला तो दिया, परंतु अनुच्छेद 40 राज्य के नीति निर्देशक तत्वों की श्रेणी में आने के कारण संवैधानिक रूप से स्वतंत्र निकाय के रूप में दर्जा नहीं दिया गया। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 40 इस प्रकार से हैं :– “40. ग्राम पंचायतों का संगठन – राज्य ग्राम पंचायतों का संगठन करने के लिए कदम उठाएगा और उनको ऐसी शक्तियां और प्राधिकार प्रदान करेगा जो उन्हें स्वायत्त शासन के रूप में कार्य करने के लिए योग्य बनाने के लिए आवश्यक हो।” संविधान में ऐसा उपबंध तो कर दिया परंतु राज्य द्वारा ग्राम पंचायतों को सत्ता का विकेंद्रीकरण नहीं होने के कारण ग्राम पंचायतें पंगु बन कर रह गई।
यह कहना गलत न होगा कि भारत के 80% जनसंख्या गांवों में निवास करती है। उन्हें उचित समय पर शिक्षित नहीं बनाया गया अर्थात उन्हें शिक्षा से वंचित रखा गया। लेकिन ग्रामीण परिवेश के लोग जैसे-जैसे शिक्षित होते गए वैसे-वैसे अपने हक और अधिकारों की मांग उठी और जोर पकड़ने लगी। परिणामस्वरूप आजादी के लगभग 50 वर्ष बाद भारतीय संसद ने दिनांक 24 अप्रैल 1993 को संविधान में 73वां संशोधन करके संविधान के द्वारा अनुच्छेद 243 में ग्राम पंचायतों के बारे में परिभाषित किया गया। अनुच्छेद 243 के भाग (क) में जिला, तथा भाग (ख) में ग्राम सभा तथा भाग (ग) में मध्यवर्ती स्तर और भाग (घ) में में पंचायत तथा भाग (ङ) में पंचायत क्षेत्र तथा भाग (च) में जनसंख्या व भाग (छ) में ग्राम को परिभाषित किया गया।
भारतीय संविधान में संशोधन के तहत अनुच्छेद 243क माध्यम से ग्राम सभा के बारे में प्रावधान किया गया। जिसके तहत ग्राम सभा ऐसी शक्तियों एवं कर्तव्यों का प्रयोग करेगी, जो राज्य के विधान मंडल द्वारा पारित किए जाएंगे।
ग्राम पंचायतों का गठन कैसे होगा। इस बारे में संविधान के अनुच्छेद 243ख में प्रावधान किया गया। इसी प्रकार ग्राम पंचायतों के संरचनाओं के बारे में अनुच्छेद 243ग में प्रावधान किया गया है। संविधान के अनुच्छेद 246घ में पंचायत राज संस्थानों में निर्वाचन होने वाले पदों में आरक्षण की व्यवस्था की गई है। आरक्षण की व्यवस्था में चक्रानुक्रम के आधार पर आरक्षण देने की बात कही गई है, जो कि अपने आप में बहुत महत्वपूर्ण है। अर्थात जब भी ग्राम पंचायतों के चुनाव होंगे तब उस पंचायत में आरक्षित होगी या नहीं होगी यह उस सीट पर लॉटरी निकाल कर चक्रानुक्रम आरक्षण की व्यवस्था अपनाई जाती है।
संविधान के संशोधन से पहले ग्राम पंचायतों के कार्यकाल की अवधि 5 वर्ष की नहीं होती थी, परंतु संविधान के अनुच्छेद 243ङ में यह प्रावधान किया गया कि पंचायत राज संस्थानों में पंचायतों के गठन की अवधि 5 वर्ष के लिए निर्धारित की गई। जबकि संविधान के अनुच्छेद 243च में पंचायतों में निर्वाचित होने वाले जनप्रतिनिधियों की अयोग्यताओं के बारे में उल्लेख किया गया है।
अब तक आपको पंचायतों के संवैधानिक रूप से गठन, उनकी अवधि तथा क्षेत्र और उसमें सम्मिलित व्यवस्थाओं के शब्दों की परिभाषाओं का उल्लेख किया गया है।
पंचायती राज व्यवस्था में सबसे महत्वपूर्ण पंचायतों की शक्तियां और उनके प्राधिकार तथा उत्तरदायित्व होते हैं। इसका उल्लेख संविधान के अनुच्छेद 243(छ) में किया गया है। इस अनुच्छेद में यह व्यवस्था दी गई है कि राज्य विधानमंडल विधि द्वारा ऐसी शक्तियां और प्राधिकार पंचायतों को देगा जिससे पंचायतों में स्वायत्त शासन की अवधारणा बनेगी। अवधारणा में – (क) आर्थिक विकास और सामाजिक न्याय,
(ख) आर्थिक विकास और सामाजिक न्याय की योजनाएं एवं स्कीम संविधान की ग्यारहवीं अनुसूची के अनुरूप होंगे।
पंचायतों के वित्तीय प्रबंधन के बारे में अनुच्छेद 243ज में प्रावधान किया गया है। जिसके तहत राज्य विधानमंडल – (क) कर, शुल्क, पथकर, फीस का संग्रहण एवं उनका विनियोजन(ख) कर, शुल्क, पथकर, फीस का संग्रहण एवं उनका विनियोजन का समानुदिष्ट करना (ग) राज्य की संचित निधि से पंचायतों को आर्थिक सहायता और अनुदान देने के प्रावधान तथा (घ) पंचायतों को होने वाले राजस्व की प्राप्ति के लिए निधियों का गठन के प्रावधान जैसी विधियों का निर्माण करना होता है।
ठीक इसी प्रकार संविधान के अनुच्छेद 243झ के तहत पंचायतों की वित्तीय स्थिति के प्रबंधन के लिए वित्त आयोग का गठन का प्रावधान है, जो कि हर पांचवे वर्ष वित्त आयोग का गठन नियमित रूप से होता रहेगा। वित्त आयोग के प्रमुख कार्य अनुच्छेद 243झ के खंड (1)(क)(i) के तहत राज्य द्वारा उद्ग्रहीत कर, शुल्क, पथकर, फीस के शुद्ध आगम का राज्य और पंचायतों के मध्य आवंटन करना तथा अनुच्छेद 243झ खंड (1)(क)(ii) के तहत कर, शुल्क, पथकर, फीसों का समानुदिष्ट रूप से विनियोजन, ऐसे ही अनुच्छेद 243झ खंड (1)(क)(iii) के तहत राज्य की संचित निधि से पंचायतों को अनुदान विनियमित करने वाले सिद्धांतों को तय करना होता है।
संविधान के अनुच्छेद 243झ खंड (1)(ख) के तहत राज्य वित्त आयोग का कर्तव्यों का उल्लेख किया गया है इन प्रावधानों के अनुसार राज्य वित्त आयोग पंचायतों की आर्थिक स्थिति को सुधारने के लिए आवश्यक रूप से उपाय करना होगा। इसी प्रकार संविधान के अनुच्छेद 243झ खंड (1)(ग) के तहत राज्य वित्त आयोग पंचायतों की आर्थिक स्थिति सुदृढ़ करने के लिए राज्यपाल को सिफारिशें प्रस्तुत करेंगे। इन सिफारिशों को राज्यपाल विधानमंडल के समक्ष रखवाएगा।
ग्राम पंचायतों के लेखा-जोखा के लिए राज्य सरकार समय-समय पर ऑडिट के लिए लेखा परीक्षकों से करवाएगा। इस बारे में भारत के संविधान के अनुच्छेद 243ञ में प्रावधान किया गया है। जबकि अनुच्छेद 243ट के तहत राज्य निर्वाचन आयोग का प्रावधान किया गया है। राज्य निर्वाचन आयोग का मुख्य कर्तव्य पंचायतों के चुनाव संपन्न करवाना होता है। इस अनुच्छेद में यह भी व्यवस्था की गई है कि राज्य निर्वाचन आयोग की विधि मान्यता को लेकर किसी भी न्यायालय में कोई कानूनी कार्रवाई अथवा दावा नहीं किया जा सकता है।
आपको अगली कड़ियों में पंचायतों की शक्तियों और उत्तरदायित्व के बारे में उनके संवैधानिक स्थिति को लेकर हैलो सरकार के आगामी अंकों में लेख प्रकाशित किए जाएंगे। इसलिए आप लगातार हैलो सरकार से जुड़े रहिए। इस लेख में लेखक के अपने निजी विचार है, इसमें हैलो सरकार की सहमति नहीं है।
लेखक राजस्थान उच्च न्यायालय के एडवोकेट है तथा गूगल प्ले स्टोर पर उनकी कई बुक्स प्रकाशित है।
